Tuesday, July 21, 2020

अब क्या असली मुद्दा और क्या विरोध

विवादप्रिय भारतीय समाज में अनर्गल प्रलाप करके विवादों को जन्म दिया जाता है. कभी किसी नाटक के विरोध में खड़ा हुआ जाता है, कभी किसी फिल्म के विरोध में तो कभी किसी गाने को लेकर गुस्सा प्रकट किया जाता है परन्तु अब लगता है कि इस समय सभी पार्टियाँ स्वार्थ को पूर्ण करने में लगी हुई हैं. कोई कुर्सी बचाने-खींचने में लगा हुआ है तो कोई वन्देमातरम, सरस्वती वंदना के विरोध में खड़ा है. विरोधी स्वरों को मुखर करने वालों को मैं एक और मुद्दा याद दिलाना चाहता हूँ जो कि वाकई विवाद का मुद्दा बन सकता है. हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ का एक गीत गाँधी जी की प्रिय धुन ‘रघुपति राघव राजाराम’ पर आधारित है, जिसमें इन शब्दों को ही आधुनिक ‘पॉप’ ढंग से गया गया है लेकिन किसी भी बापू भक्त कांग्रेसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है. कुछ वर्षों पहले ए०आर० रहमान ने ‘वन्देमातरम’ शब्द को अपने गीत में रखा था तो कथित देशभक्त कांग्रेस ने बवाल काट कर रख दिया था. जबकि रहमान के गीत-संगीत में कोई थीम भी वन्देमातरम की मूल धुन नहीं थी. कुछ कुछ होता है के गीत को जो कि जोनी लीवर के ऊपर फिल्माया गया गया है, में बापू के मूल वाक्य को ही तोड़-मरोड़ कर गया गया है.

यहाँ मेरा तात्पर्य यह नहीं कि अब इसी गीत पर विरोध किया जाये बल्कि वास्तविकता यह दिखाने की है कि किस प्रकार किसी भी मुद्दे को विरोध की आग दे दी जाती है तो कभी किसी मुद्दे पर ध्यान भी नहीं दिया जाता है. विवाद का मुद्दा आज महंगाई हो सकती है, विवादित मुद्दा आज बेरोजगारी हो सकती है, बेकारी, गरीबी, दंगा हो सकता है लेकिन किसी को भी कुर्सी की उठा-पटक से फुर्सत न मिले तो क्या किया जाये? लालू, मुलायम, कांग्रेस के लिए मुद्दा भाजपा को गिराना है, बसपा का एकमात्र मुद्दा बाबा अम्बेडकर की मूर्तियों की स्थापना करवाना है, अब क्या असली मुद्दा और क्या विरोध, कभी संस्कृति, आधुनिकता का नाम लेकर भारतीय संस्कृति का विकृत चित्रण किया जाता है, हिन्दू होने को अभिशप्त समझा जाता है, राम का नाम लेना साम्प्रदायिकता समझा जाता है, संस्कृति का हिस्सा बनाकर ‘फायर’ जैसे संबंधों को हवा दी जाती है, महिला मुक्ति के नाम पर तंदूर कांड होते हैं, युवाओं की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लीलता का विरोध करने वाली लड़कियों को जीप से कुचल दिया जाता है पर इन सब बातों का विरोध नहीं होता है, न ही विरोध होगा. पर मैं, इस बात का यकीन दिलाता हूँ कि अब कुछ कुछ होता है के गीत पर विरोध जरूर होगा क्योंकि यह गाँधी जी की प्रिय धुन को बिगाड़कर बना है, आखिर विवाद का मुद्दा तो मिला.

11 जनवरी 1999  

भौतिक सुख को प्रतिभा पलायन देशद्रोह से कम नहीं


भारतीय प्रतिभा पलायन से प्रधानमंत्री भी अब चिंतित हैं. ग्यारह भारतीय वैज्ञानिकों को सम्मानित किये जाने के अवसर पर उनकी चिंता सामने आई. प्रत्येक सरकार को प्रत्येक अलंकरण समारोह के दौरान ही प्रतिभा पलायन की चिंता सताती है. प्रतिभाओं का देश को छोड़ कर विदेशों को गमन करना कोई नया रोग नहीं है. प्रतिभाएँ पहले भी विदेशों की ओर भागी हैं और आज भी भाग रही हैं, लेकिन इस प्रतिभा पलायन के लिए किसे दोष दिया जाये? सरकार मात्र को दोषी ठहराना भी पूर्णतः गलत होगा. यह सत्य है कि आज एक प्रकार का ऐसा सिस्टम हमारे समाज में बन गया है कि भ्रष्टाचार की परिधि में किसी एक को विशेष रूप से रख पाना संभव नहीं है. हर ओर धांधली, घपला, घोटाला है और इसी का सहारा लेकर तर्क दिया जाता है कि प्रतिभाओं को पूर्ण अवसर प्राप्त नहीं होते हैं, लेकिन यह बात भी पूर्णतः सत्य नहीं है. यह माना जा सकता है कि प्रतिभावान, योग्य व्यक्तियों को समुचित संसाधनों की प्राप्ति नहीं हो पा रही है, परन्तु यह कहना कि देश में संसाधनों की कमी है, गलत होगा.

प्रतिभाओं का पहले भी और अब भी पलायन मात्र भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु होता रहा है और होता है. ऐशो-आराम की सुविधा के कारण ही भारतीय प्रतिभाएँ विदेशों की ओर आकर्षित होती हैं. सोचने की बात है कि सैकड़ों की तादाद में पलायन कर गए लोगों में कितने हैं जो अपने विभाग की महत्ता को विदेशों में स्वीकार करवा पाए हैं. विदेशी सुख-सुविधापूर्ण रहन-सहन, विदेशी संस्कृति को सर्वोच्च समझने वाले लोग ही ज्यादातर पलायनवाद के पक्षधर हैं. संसाधनों की कमी देश में है तो उसको दूर करना, प्राकृतिक सम्पदा का सही इस्तेमाल करना तथा अपने हुनर को देश सेवा में लगाना भी एक अलग तरह का सुख है, नशा है जिसमें ए०पी०जे० अबुल कलाम सहित तमाम वैज्ञानिक शामिल हैं. 

तमाम मिसाइलों, परमाणु बम के निर्माता तथा देश के उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले युवा वैज्ञानिक किसी भी मामले में संसाधनों की कमी का रोना नहीं रो रहे हैं. एम्स जैसे विख्यात मेडिकल संस्थान के विश्व प्रसिद्द डॉक्टर संसाधनों की कमी के त्रुटिपूर्ण आँकड़ों को धता बता रहे हैं. देश की सरकार का अपने ऊपर लाखों रुपये व्यय करवा कर भी यदि उच्च प्रतिभाशाली लोग देश सेवा में अपना योगदान न देकर मात्र सुख-सुविधा के लालच में विदेशों की ओर भाग रहे हैं, उन्हें किसी भी रूप में सम्मान की दृष्टि से देखना हमारे लिहाज से सही नहीं है. क्या एक पुत्र का अपने परिवार की सेवा छोड़, उपेक्षा करके किसी अन्य परिवार की सुख-सुविधा के कारण सेवा करने को हम सम्मानपूर्वक स्वीकार कर सकते हैं? ठीक यही स्थिति इन पलायनवादियों की है. ये अपनी प्रतिभा को सिखाने नहीं वरन भौतिक सुखों की खातिर भाग रहे हैं और यकीनन मात्र भौतिक सुखों के लिए पलायन देशद्रोह से कम नहीं.

12 नवम्बर 1998  

मीडिया धन नहीं, देश प्रेमी खिलाड़ियों की मदद करे


यदि आपसे पूछा जाये कि देश बड़ा या पैसा तो संभव है कि शेखी मारने के लिए आप देश को बड़ा कर दें. वैसे कुछ लोग अभी भी ऐसे हैं जो कि वाकई देश प्रेमी हैं और कुछ ऐसे हैं जो वाकई धन प्रेमी हैं. लेकिन जब कभी स्थिति ऐसी फँस जाए कि देश बंधन के बीच की ही स्थिति आ जाये तो शायद कुछ भी कहना संभव नहीं. ठीक ऐसी ही स्थिति अभी हमारे समक्ष आई और तब देखा गया कि धन वाकई देश से ज्यादा महत्त्व रखता है. राष्ट्रकुल खेलों का आयोजन व क्रिकेट का खेल तथा सहारा कप. स्थिति ऐसी थी कि एक ओर पदक का, देश का सवाल, दूसरी ओर अकूत धन. बोर्ड के सामने स्थिति ख़राब कि कहाँ किसे भेजें. बहरहाल अजय जड़ेजा के नेतृत्व में टीम राष्ट्रकुल भेजी गई. आज के डॉन ब्रेडमैन माने जा रहे तेंदुलकर भी भेजे गए, फिरकी गेंदबाज कुम्बले भी संग गए. सारे देश ने सोचा कि सचिन हैं तो मैच तो जीता ही समझो पर सचिन या अन्य खिलाड़ियों की निगाह में शायद देश पीछे था क्योंकि मैच ऐसी हालत में नहीं खेले गए कि लगे कि पदक जीतना है क्योंकि सेमीफाइनल में न पहुँच पाने का पुरस्कार सहारा कप के दो मैच खेलने को मिला था.


आज तक भारतीय जीत के हीरो समझे जाने वाले सचिन दोयम दर्जे की टीमों के सामने घुटने टेकने में लगे थे, क्योंकि न तो इन मैचों का कोई रिकॉर्ड ही रखा गया था और न ही यहाँ पर पैसों और इनाम की भरमार थी. और तो और शायद अब समूचे देशवासियों और पूरी टीम का यह मिथक टूट जाना चाहिए कि सचिन अकेले के दम पर मैच जीते जाते हैं. अगर ऐसा होता तो राष्ट्रकुल खेलों का स्वर्ण हमारे पास होता पर ऐसा न होता आया है और न ही हुआ. नज़रों में हमने जिसे चढ़ाया वो धन का पुजारी निकला. पाँचवें और अंतिम सहारा मैच में सचिन ने अर्द्धशतक बनाया क्योंकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय मैच था. वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति जसपाल राणा जो कि देश के लिए पदकों का ढेर लगा रहा है आज धन के अभाव में आस्ट्रेलिया में जाने की सोच रहा है. सरकार, समाज आदि किसी कोहकीकत दिखाई नहीं पड़ रही है. एक व्यक्ति जो कि स्वयं को एक उत्पाद के रूप में प्रचारित कर पैसा पैदा करने में लगा है, राष्ट्र के लिए एक पदक न दिलवा सकने की भी ताकत जो पैदा न कर सके वे हमारे सिर आँखों पर हैं. जो व्यक्ति वाकई देश का नाम रोशन करने के लिए लगा है उसे एक व्यक्ति नहीं मिल रहा जो कि उसे आर्थिक व मानसिक मदद, प्रोत्साहन दे सके.

यदि इसके लिए व्यक्ति जिम्मेवार है तो कहीं न कहीं मीडिया भी कसूरवार है क्योंकि क्रिकेट की चकाचौंध में सभी खेलों को दबा दिया गया है. वर्तमान आँकड़ों ने सभी क्रिकेटरों की कलई खोल दी है जो कि सिवाय अपने रिकॉर्ड के अलावा, धन के अलावा किसी और के लिए नहीं खेलते. मीडिया यदि सही रूप में हकीकत को प्रचार-प्रसार दे तो संभव है कि एक उज्ज्वल प्रतिभाशाली खिलाड़ी पलायन न करे और आगामी प्रतियोगिताओं में देश के लिए पदक तालिका में कुछ वृद्धि करे. मीडिया ऐसे लोगों की मदद को आगे आये जो वाकई देश प्रेमी हैं न कि धन प्रेमी, अन्यथा आगे की राह बड़ी ही प्रतिष्ठाविहीन है.

21 अक्टूबर 1998 

Friday, January 11, 2019

पाक को मुँहतोड़ जवाब देने को दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए


पिछले दिनों अमेरिका द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने वाले कतिपय देशों के खिलाफ बमबारी की गई. समूचे विश्व में इस तानाशाहात्मक रवैये का विरोध किया गया. भारत ने बड़े ऊँचे सुर में इस कार्यवाही का समर्थन किया कि वह आतंकवाद के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों का समर्थन करता है. इसके बाद ही जब अमेरिका ने सलाह दी कि भारत ऐसी कार्यवाही कश्मीर में न करे तो सभी को आपत्ति होने लगी कि आखिर जब इस प्रकार की कार्यवाही अमेरिका कर सकता है तो फिर भारत क्यों नहीं? लोगों ने कहा कि अमेरिका दादागीरी पर उतर आया है, पर यहाँ सवाल इस बात का विरोध करने वालों से है कि दादागीरी बिना हौसले के संभव है? किसी भी प्रकार की युद्धात्मक कार्यवाही क्या बिना आत्मशक्ति के संभव है? शायद नहीं, यदि भारत को इस तरह की कार्यवाही कश्मीर पर करनी है तो उसके लिए खुद के पास पुरजोर इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है और शायद हम कहीं पर कमजोर हैं तो बस यहीं पर.

जब से देश आज़ाद हुआ है तब से लेकर आज तक पाकिस्तान ने सिवाय हमें परेशान करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है. कश्मीर का एक हिस्सा दबाकर यह उसे आज़ाद कश्मीर का नाम देता है. क्या-क्या उसने नहीं किया पर हम हर समय शांति के कबूतर उड़ाते रहे. गाँधी का अहिंसात्मक रवैया अपनाते रहे और मात्र बातों ही के सहारे विजय प्राप्त करने की सोचते रहे. क्यों नहीं हम स्वयं में इतनी शक्ति बटोर पाए कि कश्मीर में हो रही पाकिस्तानी कार्यवाही का मुँहतोड़ जवाब दे सकें. इसका एकमात्र कारण रहा हमारे नेताओं का आपस में एकमत न हो पाना. सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुसार काम किया, बयानबाज़ी की. सभी ने अपनी ढपली, अपना राग अलापा है. ऐसे में जबकि देश से बढ़कर वोट बैंक हो वहां अमेरिकी कार्यवाही तो तानाशाही का नमूना लगेगी ही, पर यदि वाकई देश के लिए कुछ करना है तो प्रत्येक कार्य सर्वोपरि होता है. चाहे उसकी कार्यवाही कुछ भी क्यों न हो, पर इन सबके लिए चाहिए आत्मशक्ति जो कि हमारे अन्दर से मर चुकी है.

16 सितम्बर 1998  

मौजूदा हालात देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल रहे हैं

जिस तरह की स्थितियाँ देश में, प्रदेश में बन रही हैं वे सारी की सारी किसी न किसी रूप में गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर रही हैं. विदेशों में हुई क्रांतियाँ इस तरह के सामाजिक वातावरण के बाद ही उत्पन्न हुई थी, जैसी कि स्थितियाँ भारतीय समाज में बन-बिगड़ रही हैं. यह बात अलग है कि सुसुप्तावस्था में भारतीयों को इस कार्य के लिए जागने पर दस-बारह साल बीत जाएँ लेकिन यह एक बात एकदम सत्य है कि गृहयुद्ध होगा ही. नहीं भी हो पर यह समय की माँग भी है क्योंकि जिस तरह से जाति भेदभाव, आपसी वैमनष्यता, दलगत राजनीति व स्वार्थी नेता पैदा हो रहे हैं उससे छुटकारा अब सिर्फ गृह युद्ध ही दिला सकता है.

जब जिसकी मर्जी आती है, किसी भी दल की ओर हो जाता है, जब मन होता है समर्थन वापस, जब मन हुआ प्रधानमंत्री तक बदलवा दिया. राजनीतिक अस्थिरता में देश का विकास तो रुकता ही है, आम आदमी को तरह-तरह की समस्याओं को सहना पड़ता है. नेताओं की आपसी कुर्सी की जंग में आम आदमी मर रहा है. हिन्दू हिन्दू का दुश्मन, मुस्लिम मुस्लिम का, कहीं सवर्ण-अवर्ण का युद्ध तो कहीं मंदिर मस्जिद का विवाद. ये सारी स्थितियाँ व्यक्ति की सोच को एकदम से सुसुप्त कर दे रही हैं. एक नेता स्वयं को श्रेष्ठ, दूसरे को बेकार बता रहा है. कभी मायावती मुलायम को गाली देती है तो कभी मुलायम मायावती को, तो कभी दोनों ही एक होते दिखते हैं. सभी के सभी आम आदमी की भावना, संविधान की लचरता का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. आम आदमी के बीच जात-पात की रेखा खींच कर ज नफ़रत दिलों में भर दी गई है वो किसी न किसी दिन खुनी फव्वारे छोड़ती दिखाई देगी.

सभी के सब्र की एक सीमा है और उसके बाद का क्षेत्र विद्रोह का क्षेत्र होता है. यदि दलगत, मौकापरस्ती, जातिगत राजनीति का होना जारी रहा, व्यक्ति को मात्र भुनगा समझा जाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जबकि देश में गृहयुद्ध होगा और हम अपनों की लाशों से घिरे खड़े होंगे.

02 मार्च 1998 अमर उजाला समाचार पत्र