पिछले दिनों अमेरिका द्वारा आतंकवाद को
समर्थन देने वाले कतिपय देशों के खिलाफ बमबारी की गई. समूचे विश्व में इस
तानाशाहात्मक रवैये का विरोध किया गया. भारत ने बड़े ऊँचे सुर में इस कार्यवाही का
समर्थन किया कि वह आतंकवाद के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों का समर्थन करता है. इसके
बाद ही जब अमेरिका ने सलाह दी कि भारत ऐसी कार्यवाही कश्मीर में न करे तो सभी को
आपत्ति होने लगी कि आखिर जब इस प्रकार की कार्यवाही अमेरिका कर सकता है तो फिर भारत
क्यों नहीं? लोगों ने कहा कि अमेरिका दादागीरी पर उतर आया है, पर यहाँ सवाल इस बात
का विरोध करने वालों से है कि दादागीरी बिना हौसले के संभव है? किसी भी प्रकार की युद्धात्मक
कार्यवाही क्या बिना आत्मशक्ति के संभव है? शायद नहीं, यदि भारत को इस तरह की
कार्यवाही कश्मीर पर करनी है तो उसके लिए खुद के पास पुरजोर इच्छाशक्ति का होना
आवश्यक है और शायद हम कहीं पर कमजोर हैं तो बस यहीं पर.
जब से देश आज़ाद हुआ है तब से लेकर आज
तक पाकिस्तान ने सिवाय हमें परेशान करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है. कश्मीर
का एक हिस्सा दबाकर यह उसे आज़ाद कश्मीर का नाम देता है. क्या-क्या उसने नहीं किया
पर हम हर समय शांति के कबूतर उड़ाते रहे. गाँधी का अहिंसात्मक रवैया अपनाते रहे और
मात्र बातों ही के सहारे विजय प्राप्त करने की सोचते रहे. क्यों नहीं हम स्वयं में
इतनी शक्ति बटोर पाए कि कश्मीर में हो रही पाकिस्तानी कार्यवाही का मुँहतोड़ जवाब
दे सकें. इसका एकमात्र कारण रहा हमारे नेताओं का आपस में एकमत न हो पाना. सभी ने
अपनी-अपनी इच्छानुसार काम किया, बयानबाज़ी की. सभी ने अपनी ढपली, अपना राग अलापा
है. ऐसे में जबकि देश से बढ़कर वोट बैंक हो वहां अमेरिकी कार्यवाही तो तानाशाही का
नमूना लगेगी ही, पर यदि वाकई देश के लिए कुछ करना है तो प्रत्येक कार्य सर्वोपरि
होता है. चाहे उसकी कार्यवाही कुछ भी क्यों न हो, पर इन सबके लिए चाहिए आत्मशक्ति
जो कि हमारे अन्दर से मर चुकी है.
16 सितम्बर 1998