जिस तरह की स्थितियाँ देश में, प्रदेश में
बन रही हैं वे सारी की सारी किसी न किसी रूप में गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर
रही हैं. विदेशों में हुई क्रांतियाँ इस तरह के सामाजिक वातावरण के बाद ही उत्पन्न
हुई थी, जैसी कि स्थितियाँ भारतीय समाज में बन-बिगड़ रही हैं. यह बात अलग है कि
सुसुप्तावस्था में भारतीयों को इस कार्य के लिए जागने पर दस-बारह साल बीत जाएँ
लेकिन यह एक बात एकदम सत्य है कि गृहयुद्ध होगा ही. नहीं भी हो पर यह समय की माँग
भी है क्योंकि जिस तरह से जाति भेदभाव, आपसी वैमनष्यता, दलगत राजनीति व स्वार्थी
नेता पैदा हो रहे हैं उससे छुटकारा अब सिर्फ गृह युद्ध ही दिला सकता है.
जब जिसकी मर्जी आती है, किसी भी दल की
ओर हो जाता है, जब मन होता है समर्थन वापस, जब मन हुआ प्रधानमंत्री तक बदलवा दिया.
राजनीतिक अस्थिरता में देश का विकास तो रुकता ही है, आम आदमी को तरह-तरह की
समस्याओं को सहना पड़ता है. नेताओं की आपसी कुर्सी की जंग में आम आदमी मर रहा है. हिन्दू
हिन्दू का दुश्मन, मुस्लिम मुस्लिम का, कहीं सवर्ण-अवर्ण का युद्ध तो कहीं मंदिर
मस्जिद का विवाद. ये सारी स्थितियाँ व्यक्ति की सोच को एकदम से सुसुप्त कर दे रही
हैं. एक नेता स्वयं को श्रेष्ठ, दूसरे को बेकार बता रहा है. कभी मायावती मुलायम को
गाली देती है तो कभी मुलायम मायावती को, तो कभी दोनों ही एक होते दिखते हैं. सभी
के सभी आम आदमी की भावना, संविधान की लचरता का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे
हैं. आम आदमी के बीच जात-पात की रेखा खींच कर ज नफ़रत दिलों में भर दी गई है वो
किसी न किसी दिन खुनी फव्वारे छोड़ती दिखाई देगी.
सभी के सब्र की एक सीमा है और उसके बाद
का क्षेत्र विद्रोह का क्षेत्र होता है. यदि दलगत, मौकापरस्ती, जातिगत राजनीति का
होना जारी रहा, व्यक्ति को मात्र भुनगा समझा जाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जबकि देश
में गृहयुद्ध होगा और हम अपनों की लाशों से घिरे खड़े होंगे.
02 मार्च 1998 – अमर उजाला समाचार पत्र
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