Wednesday, July 25, 2018

भाजपा की आम आदमी के मन में बसी छवि धूमिल हो गई है

भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षक के रूप में उदीयमान हुए दल भाजपा की वर्तमान शैली अब मात्र सत्ता सुख की परिचायक नजर आ रही है. किसी ज़माने में दो की एकल संख्या से आज सैकड़े में पहुँचने वाली इस पार्टी का जो अभियान, जोश बुलंदी पर था, वह अब निश्चय ही निम्न से निम्नतर की ओर जा रहा है. भाजपा को लगातार मिलती उपेक्षा से ऐसा लगता है कि भाजपा ने अपनी छवि को एकदम पाक साफ़ रखा था. राजनीति के अपराधीकरण होने का एक लम्बा विरोध सर्वप्रथम भाजपा की ओर से किया गया था और उसकी छवि सारे भारत में न सही पर उत्तर क्षेत्र में निश्चित ही प्रखर होकर उभरी थी. बाबरी कांड ने अन्य दलों के बीच भाजपा की छवि को दागदार किया. मुसलमानों के अन्दर व कुछ प्रबुद्ध हिन्दुओं को भी इस कदम से आघात लगा. 

फ़िलहाल यह बीते कल की बात है और एक बहस का विषय है कि क्या सही था और क्या गलत? पर आज के माहौल में जिस तरह की राजनीति अन्य राजनीतिक दल कर रहे थे, उसे देखकर आने वाले समय में भाजपा को ही सिरमौर माना जा रहा था. हर वो भारतीय जो कि एक पार्टी विशेष में अपना हित न देखकर उस मामले को ही सही सही समझता है, जिसमें देश का हित हो तो यकीनी तौर पर लोगों की पसंद भाजपा ही थी. आखिर भारतीय स्तर पर जानी जाने वाली पार्टी कांग्रेस की स्थिति एक मौकापरस्त की बन चुकी है. ठीक ऐसी ही स्थिति अन्य पार्टियों की है. जद हो या सपा या बसपा, ये किसी भी रूप में राष्ट्रीय स्तर पर देश की सत्ता संभालने लायक नहीं समझी जा सकी हैं. यही कारण है कि आने वाले समय की एकमात्र पार्टी भाजपा को ही माना गया था न कि किसी अन्य को. पर हाल की घटनाओं से लगता है कि भाजपा भी कांग्रेस या अन्य पार्टियों की राह पर जा रही है. 

उ०प्र०की घटना ने वाकई सभी का विश्वास तोड़ कर रख दिया है. यह एक कटु सत्य है कि आज के समय में की जाने वाली राजनीति में सिद्धांतों और आदर्शों की कोई जगह नहीं है. सभी को ताक पर रखकर ही राजनीति की जा रही है. एक परिवार की गुहार लगाई जा रही है तो एक पार्टी से लगातार प्रधानमंत्री बदल रहे हैं. भारतीयता के नाम पर देश के आम आदमी में जीवित आदर्शों और सिद्धांतों ने भाजपा के रूप में अपने आपको देखना शुरू कर दिया था, पर अब लगता है कि आम आदमी के मन में बसी छवि धूमिल हो गयी है. यह बात अलग है कि समय की माँग पर भाजपा ही खरी उतरती है पर किसी भी तरह की सत्तालोलुपता या अपराधीकरण उसके मंत्रिमंडल को तो बढ़ा सकता है, पर जनाधार को अवश्य ही कम करेगा. भाजपा को इस ओर भी सोचना होगा, कुछ करना होगा.

16 दिसम्बर 1997 अमर उजाला समाचार पत्र


Wednesday, June 6, 2018

प्रदेश में अस्थिरता के लिए मतदाता भी जिम्मेवार

पिछले दिनों उ०प्र० की राजनीति में अच्छाई व बुराई दोनों रूपों को देखने का मौका मिला. बुराई के रूप में यदि विधानसभा में जूते, माइक बगैरह चले तो अच्छाई के तहत राज्यपाल ने कल्याण सिंह सरकार को बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया. बुराई का एक क्षण देश की मोर्चा सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने की कोशिश थी तो अच्छा ये हुआ कि राष्ट्रपति ने राज्यपाल के फैसले को पुनर्विचार के लिए भेज दिया. बहरहाल महामहिम के एक ठोस कदम से उ०प्र० में लोकतंत्र की हत्या होने से बच गई. लोगों ने खुले रूप में इस कृत्य के लिए राज्यपाल की भर्त्सना की. राज्यपाल की वापसी की बात भी उठाई गई पर ऐसा मौका आता ही क्यों है? क्यों हमें इस तरह के हिंसक कदमों को उठाना पड़ता है? क्यों राज्यपाल अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके तानाशाही प्रवृत्ति अख्तियार कर लेता है? यह सही है कि नियुक्ति से लेकर इस घटनाक्रम तक राज्यपाल की भूमिका विवादित ही रही है. पर क्या समूचे विवाद के पीछे आरोप-प्रत्यारोप का केंद्र-बिंदु राज्यपाल ही होंगे? क्या हम मतदाता कभी भी अपने आपको इस बात के लिए दोषी ठहराएंगे कि क्यों हमने ऐसे लोगों का चुनाव किया जो एक स्थिर सरकार नहीं दे सकते हैं? क्यों हमारी मुहर की छाप हमारी संकीर्ण जातिवादी मानसिकता में रचकर बैलट पर लग जाती है?

सभी को याद होगा कि जब उ०प्र० विधानसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी तो भी राज्यपाल के द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित न करने के कारण चुनी हुई विधायिका भी महीनों तक विधानसभा को सुशोभित न कर सकी थी. क्यों ऐसा हुआ और कौन था इसका जिम्मेवार? क्यों किसी एक पार्टी को हमने पूर्ण बहुमत नहीं दिया? क्या हमारी समझ में यह आ सका है कि प्रदेश के विकास की प्रक्रिया अभी भी वहीं स्थिर है जहाँ छह वर्ष पहले थे. इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमी या फिर हमारे यही विधायक चुनावों की चाह रखते हैं पर फिर भी अगर आज चुनाव हो भी जाता है तो यह अवश्यम्भावी होता है कि ठीक यही स्थिति नजर आती जो कि इस विधानसभा में थी. हमारा विकास हो सके या नहीं पर हम जातिगत राजनीति में लगे रहेंगे. कौन दलित हितैषी, कौन अम्बेडकर पूजक, कौन धर्मनिरपेक्ष, कौन सांप्रदायिक यही राग अलापते रहेंगे. यह इत्मिनान से सोचने की बात है कि क्या मूर्तियों, बागों, पार्कों द्वारा देश का विकास हो सका? महामहिम की कृपा से हम एक बार फिर गलती करने से बच गए वर्ना हम फिर जातिगत रंग में रंगी मुहर लगाते और दोष किसी सरकार, किसी राज्यपाल को देते.
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04 नवम्बर 1997 अमर उजाला समाचार पत्र

Monday, June 4, 2018

दुखती रग को छूकर दी जाने वाली यह कैसी श्रद्धांजलि है?

ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ की भारत यात्रा का क्या मकसद है, यह किसी ने ज़ाहिर नहीं किया परन्तु जलियांवाला बाग़ की यात्रा करना अवश्य उनकी मानसिकता को उजागर करता है. आख़िरकार जिस देश ने कभी हम पर शासन किया हो और शासन ख़तम हुए भी महज 50 वर्ष बीते हैं, तो कहीं न कहीं महारानी के मन में अहं की भावना आती होगी. फिर ऐन स्वर्ण जयंती उत्सव पर उनकी यह यात्रा इसी मनोवृत्ति का द्योतक है. यदि महारानी भारत आना चाहती हैं तो अमृतसर जाने का क्या औचित्य और फिर अमृतसर जाना भी है क्या जरूरी है कि जलियांवाला बाग़ की ओर रुख किया जाये? आखिर इस स्थान के साथ हम भारतीयों की दुखद यादें जुड़ी हुई हैं, महारानी वहां क्रूर काल का शिकार हुए लोगों को श्रद्धांजलि देना चाहती हैं. समझ नहीं आया कि यह कैसा प्रायश्चित, कैसी श्रद्धांजलि है जो कि हमारी दुखती रग को छूकर दी जा रही है? और फिर यदि किसी तरह का प्रायश्चित करना ही है तो क्या मात्र इस बाग़ के साथ ही अंग्रेज सैनिकों की बर्बरता की दास्तान जुड़ी है? ऐसा तो नहीं है, भारत देश की हर गली, हर गाँव में किसी न किसी पैमाने पर अंग्रेजी हुकूमत के ज़ुल्मो-सितम की छाप मौजूद है. तो फिर महारानी का इस बाग़ के शहीदों को ही याद करने का क्या औचित्य है?

आज 50 वर्ष बीत जाने के बाद भी न तो किसी प्रायश्चित का प्रभाव पड़ना है और न ही माफ़ी मांगने का कोई महत्त्व है. फिर भी यदि महारानी को वाकई प्रायश्चित या श्रद्धांजलि का मन हो रहा है तो यकीनन हम भारतवासियों की बात मानकर इस घटना के लिए क्षमा मांगनी चाहिए. आज महारानी और उसके खानदान को इस बात का सुकून मिलना चाहिए कि अंग्रेजी शासन की वर्षों की बर्बरता को महज एक जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की घटना में परिणत कर क्षमा मांगने की अपील की गई है. स्वयं महारानी को और हमारे देश के दो जुबान वाले प्रधानमंत्री को इस बात पर विचार करना चाहिए. वैसे भी क्षमा मांगने से महारानी की शान में बट्टा नहीं लग रहा है और न ही हमारे शहीद भाई-बंधु वापस जीवित हो रहे हैं. यह महज औपचारिकता ही है जो कि हमारी आज़ादी की स्वर्ण जयंती पर महारानी की ओर से की जा रही श्रद्धांजलियों में सर्वोत्तम होगी. प्रधानमंत्री गुजराल कभी महारानी को अमृतसर न जाने को कहते हैं, अगले ही दिन सारे भारत की यात्रा की छूट दे देते हैं. यदि हमारी दुखती रगों को दुखाना ही महारानी की यात्रा का सबब है तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए, अन्यथा हम स्वतंत्र होकर भी अंग्रेजों की मानसिक बर्बरता का शिकार हो जायेंगे.

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11 सितम्बर 1997 – अमर उजाला समाचार पत्र

आज़ादी के पचास साल बाद भी हम 'गुलाम' हैं

यदि आज यह सवाल किया जाये तो संभव है कि वह सवाल करने वाले को मूर्ख ही समझे. यह एक कटु सत्य है कि आज से पचास वर्ष पूर्व स्वतंत्र होने के बाद भी हम स्वतंत्र नहीं हैं. यदि ऐसा हो तो सोचने की बात है कि हम परतंत्र किस दृष्टि से हैं. यदि हम अपने जमीर की आवाज़ को सुनकर अपने गिरेबान में झांकें तो पाएंगे कि हमारे तन तो स्वतंत्र हैं पर मन गुलाम हैं. हम मानसिक गुलामी की ज़िन्दगी जी रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद भी हमने मानसिक गुलामी से आज़ादी नहीं पाई थी और आज भी हम इससे मुक्त नहीं हैं. सवाल यह उठता है कि किन मुद्दों, किन क्षेत्रों में हमने मानसिक गुलामी का परिचय दिया है? यहाँ यह बताना कदापि आवश्यक नहीं कि हम हर क्षेत्र में, हर कदम पर अपनी मानसिक गुलामी का परिचय देते आये हैं. चाहे वह हमारी तरक्की का क्षेत्र हो, खेल का मैदान हो, देश के कर्णधारों की बात हो या उनको पैदा करने वाली माँ की बात हो, यहाँ तक कि हमने अपने परिवार की इज्जत एवं अपने देश की इज्जत तक में गुलाम मानसिकता का परिचय दिया है. पृथ्वी की सफलता के बाद भी उसकी तैनाती न कर पाना क्या है? लगातार पाक के शैतानी मंसूबों के बाद भी उसको माकूल जवाब न दे पाना क्या है? अपने देश की भूमि के स्वर्ग कश्मीर को अपना न कह पाने का क्या कारण है? खुले व्यापार की संधि समझौते के बाद भी अमेरिका की सुपर 301 की धमकी को सहना हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक है. फिर भी हम कैसे कहें कि हम स्वतंत्र हैं और आज स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती मना रहे हैं. 

दुनिया को हम दिखा रहे हैं कि आज़ादी की स्वर्ण जयंती कितने आधुनिकता से मना रहे हैं पर मन में वही प्रवृत्तियाँ, कलुषित विचार बनते, घुमड़ते रहते हैं. आधुनिकता का दंभ भरने के बाद भी हम दहेज़ के दानव को ख़त्म नहीं कर पाए हैं. आज भी लड़की को लड़के से निकृष्ट माना जा रहा है. एक जान को आँख खोलने से पहले ही मौत की नींद सुला दिया जाता है और ममतामयी कोख तरसती, रोती रह जाती है. इस पुरुष प्रधान समाज में नारी को अर्धांगनी से दासी बनाकर हम अपने उच्च मानसिक स्तर का या निम्न मानसिक स्तर  का सबूत देते हैं, कहने की जरूरत नहीं. महिला आरक्षण बिल एक बार संसद में गूंजा और फाइलों में बंद हो गया. बाल विकास की योजनायें कागजों में बनकर वहीं समाप्त हो गईं. एक जाति विशेष के गाँवों को अम्बेडकर गाँव बनाकर उन्नति का स्वांग कर सोचते हैं कि हम स्वतंत्र हैं. अपने आपको जागृत कहलाने की खातिर एक उच्च व्यक्ति को बाजार, खेतों, मेलों में मूर्ति बनाकर खड़ा कर देना किस स्वतंत्रता को दर्शाता है? आज़ादी की स्वर्ण जयंती पर अगर हम एक भी कोख से एक भी लड़की को बचा सकें, एक भी बच्चे के हाथ से भीख का कटोरा खींचकर पेन्सिल पकड़ा सकें, भूखे, नंगों को रोटी, कपड़ा दिला सकें तो यकीनी तौर पर हम आज़ादी का अर्थ समझ सकेंगे.

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27 अगस्त 1997 - अमर उजाला समाचार पत्र

Monday, March 12, 2018

फिर भाजपा और सत्ता की भूखी पार्टियों में कोई फर्क नहीं रहेगा

तमाम ऊहापोह की स्थिति आत्मविश्वास की कमी के बाद भी गठबंधन प्रत्याशी कृष्णकांत उपराष्ट्रपति के पद पर काबिज हो गए। मोर्चा व कांग्रेस के कुछ सांसद तो निकल भागे पर अंततः जीत कृष्णकांत के ही हाथ लगी। भाजपा को एक बार पुनः मुंह की खानी पड़ी। भाजपा की स्थिति आज संसद में काफी गई गुजरी दिखती है। राष्ट्रपति के चुनाव से लेकर उपराष्ट्रपति के चुनाव तक स्पष्ट हो गया है कि भाजपा की स्थिति महज एक पार्टी की है। मोर्चा व कांग्रेस गठबंधन पूर्ण रूप से बहुमत में है। सोची समझी नीति के तहत भाजपा ने राष्ट्रपति के पद के लिए के०आर० नारायणन को समर्थन देकर अपनी दलित विरोधी छवि को थोड़ा सुधारने की कोशिश की थी, वहीं वह उपराष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार को आगे लाना चाहती थी। पर हुआ वही कि लालच में दोनों गए, माया मिली न राम। कहने का अर्थ यह कि राष्ट्रपति के लिए शेषन की उम्मीदवारी को समर्थन न देकर भाजपा ने अपनी स्पष्टवादिता, न्यायप्रियता और स्वच्छ निष्पक्ष छवि को तो धो लिया है। जो भाजपा शेषन के चुनावी कार्यों को अंजाम देते देख बड़ाई करने से नहीं थमती थी, उसे एक राष्ट्रपति के रूप में शेषन उचित नजर नहीं आये।

यह तय था कि शेषन को समर्थन देने के बाद भी मोर्चा समर्थित प्रत्याशी के०आर० नारायणन ही विजयी होते पर शेषन के रूप में निष्पक्ष, कार्यकुशल व लोकतंत्र रक्षक की जमानत जब्त न होती। फ़िलहाल यहाँ बरनाला की जमानत बची रही पर भाजपा की जो छवि देख कर उसे जनता ने इस मुकाम तक पहुँचाया है वह धूमिल हो चुकी है। क्या टी०एन० शेषन राष्ट्रपति पद के सुयोग्य उम्मीदवार नहीं थे? क्या नारायणन को समर्थन देने के बाद भी भाजपा की दलित विरोधी छवि में सुधार आया है? उ०प्र० में दलित पार्टी से गठबंधन है पर फिर भी दलित समर्थक छवि न बन सकी है। लाखों रुपये के अपव्यय वाले साहू मेले को लेकर सवालों पर जब अटल जैसा बेबाक निष्पक्ष नेता चुप्पी लगा जाये तो स्थिति की भयावहता की कल्पना की जा सकती है। आखिर समर्थन देने का तात्पर्य मात्र सत्ता का लालच नहीं होना चाहिए। करोड़ों रुपये से बनते अम्बेडकर पार्क और उद्यान क्या वाकई दलित उत्थान के प्रतीक हैं? ऐसी पार्टी को लगातार अपना स्वाभिमान गिराकर सत्ता की खातिर समर्थन देना भाजपा की अपनी छवि को धूल में ही मिलाना है। फ़िलहाल न तो सुरजीत सिंह बरनाला विजयी हो सके और न ही भाजपा की दलित विरोधी छवि ही धुल सकी। भविष्य में कार्य ऐसे किये जाएँ जो कि उनकी छवि की गरिमा को गिराएँ नहीं वरन और ऊपर ले जाएँ। अन्यथा सत्ता की खातिर दौड़ रही समस्त पार्टियों और भाजपा में कोई अंतर नहीं रह जायेगा।

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23 अगस्त 1997 - अमर उजाला समाचार पत्र

Tuesday, March 6, 2018

राष्ट्रपति का चुनाव आम सहमति से नहीं चुनाव द्वारा हो

देश की मौजूदा स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि सभी दल एक अज्ञात भय से सशंकित हैं। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, जद हो या सपा, सभी को भय चुनाव का है। इस समय देश में भले ही केन्द्र सरकार के लिए चुनाव नहीं होने हैं पर आगामी माह भारत के प्रथम नागरिक का चयन होने को है। यह बात तो तय है कि जिस प्रत्याशी को तेरह दलों का समर्थन मिलेगा, वही विजयी होगा। या फिर भाजपा जिस व्यक्ति को समर्थन देगी वह पराजित हो जायेगा। इस सारे समीकरण के बावजूद सभी दल राष्ट्रपति का चुनाव न करवाकर आम सहमति की बात कर रहे हैं। आखिर यह आम सहमति क्या है और क्यों है? क्या आज लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया एकदम खस्ताहाल हो गई है? या फिर हम अपनी प्रणाली, अपनी व्यवस्था को त्याग कर आम सहमति जैसे रास्तों का चयन कर रहे हैं? सोचने की बात यही है कि क्या आम सहमति से एकदम सही व उपयुक्त प्रत्याशी का चयन हो सकता है? आज सभी दलों को एक ही राजनीति दिख रही है, दलितों और अल्पसंख्यकों की। भाजपा को छोड़कर सभी खुलेआम के० आर० नारायणन को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश में हैं, फिर चुनावी प्रक्रिया से डर क्यों? आखिर जो प्रणाली बनाई गई है उसका वहन तो करना ही चाहिए, पर जो डर आज पार्टियों के अन्दर समा गया है वह निकालना अत्यावश्यक है। जहाँ एक ओर पार्टी के संगठनात्मक चुनाव हो रहे हैं, वहां ऐसी बातें जो कि आम सहमति की राह पर हैं, कतई लोकतंत्र की राह नहीं है। कांग्रेस ने अपने मरते लोकतंत्र को चुनाव करवाकर जिला लिया है। जद भी दो शीर्षस्थ नेताओं की तू-तू, मैं-मैं में अपने लोकतंत्र को ढूंढ रहा है। ये पार्टियाँ अपने नेता को चुनने के लिए आम सहमति क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं? ये सभी देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठने वाले के प्रति आम सहमति क्यों दिखा रहे हैं? क्या आम सहमति से आने वाला राष्ट्रपति स्वतंत्र निर्णय ले सकेगा? वैसे भी हमारे देश का राष्ट्रपति प्रधानमंत्री का रबर स्टैम्प मात्र है। ऐसे में चाहे आम सहमति की बात हो या चुनाव की बात, कोई फर्क नहीं पड़ता है, पर फिर भी ऐसे व्यक्ति का चुनाव जो कि देश का प्रथम नागरिक हो, किसी मजबूरी जैसी आम सहमति से नहीं बल्कि चुनावी प्रक्रिया द्वारा होना चाहिए। शायद कुछ अलग परिणाम सामने आयें, पर सभी दलों को अपना आंतरिक भय दूर करना होगा जो कि उनके बयानों से झलकता है।
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25 जून 1997 - अमर उजाला समाचार पत्र

Tuesday, February 27, 2018

देश में लोकतंत्र के प्रति सभी राजनीतिक दल उदासीन

अंततः सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हो ही गए। पार्टी में उनकी स्थिति को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि क्या वे इस कुर्सी को प्राप्त कर सकेंगे। बहरहाल अध्यक्ष पद का चुनाव कांग्रेस ने करवा कर अपने तथाकथित लोकतंत्र की रक्षा की। काफी समय से कांग्रेसियों द्वारा यह राग अलापा जा रहा था कि पार्टी की लोकतान्त्रिक व्यवस्था खतरे में है। पार्टी को किसी ऐसे महानुभाव की जरूरत है जो पार्टी के लोकतंत्र को जीवित रख सके। अब ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस का लोकतंत्र क्या था, क्या है? नेहरू खानदान को ही गद्दी सौंप देना ही लोकतंत्र है? या आज की स्थिति में बनी सरकार को गिराना लोकतंत्र है? एक पल को यदि यह माना जाये कि देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही कांग्रेस की चुनावी प्रक्रिया है तो आज तक नहीं के बराबर इसका उपयोग क्यों किया गया? सही मायनों में आज के परिप्रेक्ष्य में गौर किया जाये तो साफ़ समझ में आएगा कि पार्टी के अन्दर नेतृत्व को लेकर खासी उथल-पुथल मची हुई है। कौन ऊपर, कौन नीचे, कौन बड़ा, कौन छोटा किसी का भी फर्क नहीं रह गया है। मात्र इसी अध्यक्षी को लेकर कांग्रेसियों को लोकतंत्र याद आने लगा। फ़र्ज़ करो कि कल को सोनिया गाँधी अध्यक्ष पद ग्रहण करना स्वीकार कर लेती हैं तो क्या फिर चुनाव होते? शायद नहीं, तब क्या लोकतंत्र की याद न सताती? आज देशहित से बढ़कर पार्टी व जाति हित दिखाई दे रहा है। सभी पार्टियों को अपना लोकतंत्र खोता दिख रहा है पर असली लोकतंत्र जो देश का है उस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। किसी एक पार्टी के संगठनात्मक चुनावों का हो जाना यदि किसी देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का द्योतक है तो देश में नामालूम कितने लोकतंत्र हैं। और पार्टी के चुनावों पर यह तथाकथित लोकतंत्र जी उठता है। देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज यकीनी तौर पर कांग्रेस के ही हाथों में है। 

पिछले दिनों देवगौड़ा सरकार के पतन के बाद चुनावों के बादलों को पुनः कांग्रेस की समर्थन भरी हवाओं ने टाला था। देश का असहाय लोकतंत्र आज फिर कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने के बाद सीताराम केसरी का मुंह ताक रहा है कि कहीं फिर पार्टी की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जीवित न कर दें। देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को यदि ये तथाकथित लोकतंत्र जिलाने वाली पार्टियाँ वापस ला सकें तो आज की पीढ़ी व भावी पीढ़ी अवश्य ही इनकी शुक्रगुजार रहेगी कि कम से कम आपसी मारकाट में भी ये पार्टियाँ देश के लोकतंत्र को जिन्दा रख सकीं, पर अभी तक तो यह एक स्वप्न है।
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21 जून 1997 अमर उजाला समाचार पत्र

Saturday, February 24, 2018

भारतीय समाज में शिगूफों का कोई अंत नहीं है

भारतीय समाज में शिगूफों का कोई अंत नहीं है। कब, कौन, कहाँ पर शिगूफा खड़ा कर दे कहा नहीं जा सकता है। इस मामले में हमारे देश के विशिष्टजन, फ़िल्मी हस्तियाँ और नेतागण काफी उन्नति पर हैं। राजनैतिक पटल पर भी कभी-कभार नए-नए शोशे देखने को मिलते हैं। आजकल तो जैसे इन्हीं का ज़माना आ गया है। हर पल यही अंदेशा लगा रहता है कि कब क्या हो जाये।

हमारे प्रसिद्द मौनी बाबा उर्फ़ पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने भी अँधेरे में तीर मारा था या कहें कि एक ऐसा शिगूफा छोड़ा था जो कि यदि सत्य हो जाता तो संभव था कि बड़े-बड़े दिग्गज नेताओं की एक अच्छी खासी जमात तिहाड़ जेल में मौजूद मिलती। अपने आपको स्वच्छ, निर्भीक, निष्पक्ष छवि का कहलाने के प्रयास में राव साहब ने हवाला कांड के हवाले एक से एक महान नेताओं को कर दिया था। सीबीआई जाँच हुई, समितियां बनी, गवाह व सबूत तैयार किये गए और फिर हुई अदालती कार्यवाही। लगा कि चलो इस बार तो सफ़ेद लकदक कुर्तों के भीतर झांकती कालिख को अदालत जनता के सामने लाएगी। बहुत लम्बे अरसे से देश और जनता का लहू चूसते नेताओं को भी जेल की राह देखनी पड़ेगी, पर क्या हुआ।

अदालत लगी, समस्त कार्यवाही की गई। दोषी, आरोपी सभी बुलाये गए पर नतीजा गुब्बारे की निकली हवा सा फिस्स। एक-एक करके सभी बरी होने लगे, बाइज्जत बरी। समझ न आया इसे क्या कहा जाये। सीबीआई ने अवश्य अपनी कार्यप्रणाली पर प्रश्नसूचक चिन्ह लगवा लिया। आख़िरकार क्या आवश्यकता आन पड़ी थी अदालत की शरण में जाने की वो भी बिना किसी पर्याप्त सबूत के। यह सही भी है कि बिना किसी सबूत के हमारा कानून सजा नहीं देता और किसी भी डायरी में लिखी दो लाइनें भी किसी के खिलाफ सबूत नहीं बन सकती हैं। खैर जो शिगूफा राव साहब ने छोड़ा वो तो बिना किसी भी आवाज़ के गीले पटाखे सा चल गया। एक-एक करके सारे नेता छूट रहे हैं और छूटेंगे भी पर क्या इससे सीबीआई या स्वयं अदालत संदेह के घेरे में नहीं आई है? या फिर वह पुनः किसी शिगूफे के चलते सबूतों को जुटाने चल पड़ेगी?

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13 जून 1997 – अमर उजाला समाचार पत्र

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किसी समय समाचार पत्रों के पत्र कॉलम में, पाठकों की प्रतिक्रियाओं आदि में खूब लिखा था. उसी समय अमर उजाला समाचार पत्र ने अपने पत्र कॉलम में 'खास ख़त' नाम से प्रतिदिन एक पत्र का प्रकाशन करना आरम्भ किया था. हमारे पत्र भी 'खास ख़त' में खूब प्रकाशित हुए.
ये सारे 'खास ख़त' पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करवाए थे. अब इन्हें ब्लॉग के माध्यम से आप सबके सामने पुनः प्रकाशित किया जा रहा है.