Tuesday, February 27, 2018

देश में लोकतंत्र के प्रति सभी राजनीतिक दल उदासीन

अंततः सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हो ही गए। पार्टी में उनकी स्थिति को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि क्या वे इस कुर्सी को प्राप्त कर सकेंगे। बहरहाल अध्यक्ष पद का चुनाव कांग्रेस ने करवा कर अपने तथाकथित लोकतंत्र की रक्षा की। काफी समय से कांग्रेसियों द्वारा यह राग अलापा जा रहा था कि पार्टी की लोकतान्त्रिक व्यवस्था खतरे में है। पार्टी को किसी ऐसे महानुभाव की जरूरत है जो पार्टी के लोकतंत्र को जीवित रख सके। अब ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस का लोकतंत्र क्या था, क्या है? नेहरू खानदान को ही गद्दी सौंप देना ही लोकतंत्र है? या आज की स्थिति में बनी सरकार को गिराना लोकतंत्र है? एक पल को यदि यह माना जाये कि देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही कांग्रेस की चुनावी प्रक्रिया है तो आज तक नहीं के बराबर इसका उपयोग क्यों किया गया? सही मायनों में आज के परिप्रेक्ष्य में गौर किया जाये तो साफ़ समझ में आएगा कि पार्टी के अन्दर नेतृत्व को लेकर खासी उथल-पुथल मची हुई है। कौन ऊपर, कौन नीचे, कौन बड़ा, कौन छोटा किसी का भी फर्क नहीं रह गया है। मात्र इसी अध्यक्षी को लेकर कांग्रेसियों को लोकतंत्र याद आने लगा। फ़र्ज़ करो कि कल को सोनिया गाँधी अध्यक्ष पद ग्रहण करना स्वीकार कर लेती हैं तो क्या फिर चुनाव होते? शायद नहीं, तब क्या लोकतंत्र की याद न सताती? आज देशहित से बढ़कर पार्टी व जाति हित दिखाई दे रहा है। सभी पार्टियों को अपना लोकतंत्र खोता दिख रहा है पर असली लोकतंत्र जो देश का है उस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। किसी एक पार्टी के संगठनात्मक चुनावों का हो जाना यदि किसी देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का द्योतक है तो देश में नामालूम कितने लोकतंत्र हैं। और पार्टी के चुनावों पर यह तथाकथित लोकतंत्र जी उठता है। देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था आज यकीनी तौर पर कांग्रेस के ही हाथों में है। 

पिछले दिनों देवगौड़ा सरकार के पतन के बाद चुनावों के बादलों को पुनः कांग्रेस की समर्थन भरी हवाओं ने टाला था। देश का असहाय लोकतंत्र आज फिर कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने के बाद सीताराम केसरी का मुंह ताक रहा है कि कहीं फिर पार्टी की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जीवित न कर दें। देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को यदि ये तथाकथित लोकतंत्र जिलाने वाली पार्टियाँ वापस ला सकें तो आज की पीढ़ी व भावी पीढ़ी अवश्य ही इनकी शुक्रगुजार रहेगी कि कम से कम आपसी मारकाट में भी ये पार्टियाँ देश के लोकतंत्र को जिन्दा रख सकीं, पर अभी तक तो यह एक स्वप्न है।
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21 जून 1997 अमर उजाला समाचार पत्र

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