भारतीय प्रतिभा पलायन से प्रधानमंत्री
भी अब चिंतित हैं. ग्यारह भारतीय वैज्ञानिकों को सम्मानित किये जाने के अवसर पर
उनकी चिंता सामने आई. प्रत्येक सरकार को प्रत्येक अलंकरण समारोह के दौरान ही
प्रतिभा पलायन की चिंता सताती है. प्रतिभाओं का देश को छोड़ कर विदेशों को गमन करना
कोई नया रोग नहीं है. प्रतिभाएँ पहले भी विदेशों की ओर भागी हैं और आज भी भाग रही
हैं, लेकिन इस प्रतिभा पलायन के लिए किसे दोष दिया जाये? सरकार मात्र को दोषी
ठहराना भी पूर्णतः गलत होगा. यह सत्य है कि आज एक प्रकार का ऐसा सिस्टम हमारे समाज
में बन गया है कि भ्रष्टाचार की परिधि में किसी एक को विशेष रूप से रख पाना संभव
नहीं है. हर ओर धांधली, घपला, घोटाला है और इसी का सहारा लेकर तर्क दिया जाता है
कि प्रतिभाओं को पूर्ण अवसर प्राप्त नहीं होते हैं, लेकिन यह बात भी पूर्णतः सत्य
नहीं है. यह माना जा सकता है कि प्रतिभावान, योग्य व्यक्तियों को समुचित संसाधनों
की प्राप्ति नहीं हो पा रही है, परन्तु यह कहना कि देश में संसाधनों की कमी है,
गलत होगा.
प्रतिभाओं का पहले भी और अब भी पलायन
मात्र भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु होता रहा है और होता है. ऐशो-आराम की सुविधा
के कारण ही भारतीय प्रतिभाएँ विदेशों की ओर आकर्षित होती हैं. सोचने की बात है कि
सैकड़ों की तादाद में पलायन कर गए लोगों में कितने हैं जो अपने विभाग की महत्ता को
विदेशों में स्वीकार करवा पाए हैं. विदेशी सुख-सुविधापूर्ण रहन-सहन, विदेशी
संस्कृति को सर्वोच्च समझने वाले लोग ही ज्यादातर पलायनवाद के पक्षधर हैं.
संसाधनों की कमी देश में है तो उसको दूर करना, प्राकृतिक सम्पदा का सही इस्तेमाल
करना तथा अपने हुनर को देश सेवा में लगाना भी एक अलग तरह का सुख है, नशा है जिसमें
ए०पी०जे० अबुल कलाम सहित तमाम वैज्ञानिक शामिल हैं.
तमाम मिसाइलों, परमाणु बम के निर्माता
तथा देश के उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले युवा वैज्ञानिक किसी भी मामले में
संसाधनों की कमी का रोना नहीं रो रहे हैं. एम्स जैसे विख्यात मेडिकल संस्थान के
विश्व प्रसिद्द डॉक्टर संसाधनों की कमी के त्रुटिपूर्ण आँकड़ों को धता बता रहे हैं.
देश की सरकार का अपने ऊपर लाखों रुपये व्यय करवा कर भी यदि उच्च प्रतिभाशाली लोग
देश सेवा में अपना योगदान न देकर मात्र सुख-सुविधा के लालच में विदेशों की ओर भाग
रहे हैं, उन्हें किसी भी रूप में सम्मान की दृष्टि से देखना हमारे लिहाज से सही
नहीं है. क्या एक पुत्र का अपने परिवार की सेवा छोड़, उपेक्षा करके किसी अन्य
परिवार की सुख-सुविधा के कारण सेवा करने को हम सम्मानपूर्वक स्वीकार कर सकते हैं?
ठीक यही स्थिति इन पलायनवादियों की है. ये अपनी प्रतिभा को सिखाने नहीं वरन भौतिक
सुखों की खातिर भाग रहे हैं और यकीनन मात्र भौतिक सुखों के लिए पलायन देशद्रोह से
कम नहीं.
12 नवम्बर 1998
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