Monday, March 12, 2018

फिर भाजपा और सत्ता की भूखी पार्टियों में कोई फर्क नहीं रहेगा

तमाम ऊहापोह की स्थिति आत्मविश्वास की कमी के बाद भी गठबंधन प्रत्याशी कृष्णकांत उपराष्ट्रपति के पद पर काबिज हो गए। मोर्चा व कांग्रेस के कुछ सांसद तो निकल भागे पर अंततः जीत कृष्णकांत के ही हाथ लगी। भाजपा को एक बार पुनः मुंह की खानी पड़ी। भाजपा की स्थिति आज संसद में काफी गई गुजरी दिखती है। राष्ट्रपति के चुनाव से लेकर उपराष्ट्रपति के चुनाव तक स्पष्ट हो गया है कि भाजपा की स्थिति महज एक पार्टी की है। मोर्चा व कांग्रेस गठबंधन पूर्ण रूप से बहुमत में है। सोची समझी नीति के तहत भाजपा ने राष्ट्रपति के पद के लिए के०आर० नारायणन को समर्थन देकर अपनी दलित विरोधी छवि को थोड़ा सुधारने की कोशिश की थी, वहीं वह उपराष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार को आगे लाना चाहती थी। पर हुआ वही कि लालच में दोनों गए, माया मिली न राम। कहने का अर्थ यह कि राष्ट्रपति के लिए शेषन की उम्मीदवारी को समर्थन न देकर भाजपा ने अपनी स्पष्टवादिता, न्यायप्रियता और स्वच्छ निष्पक्ष छवि को तो धो लिया है। जो भाजपा शेषन के चुनावी कार्यों को अंजाम देते देख बड़ाई करने से नहीं थमती थी, उसे एक राष्ट्रपति के रूप में शेषन उचित नजर नहीं आये।

यह तय था कि शेषन को समर्थन देने के बाद भी मोर्चा समर्थित प्रत्याशी के०आर० नारायणन ही विजयी होते पर शेषन के रूप में निष्पक्ष, कार्यकुशल व लोकतंत्र रक्षक की जमानत जब्त न होती। फ़िलहाल यहाँ बरनाला की जमानत बची रही पर भाजपा की जो छवि देख कर उसे जनता ने इस मुकाम तक पहुँचाया है वह धूमिल हो चुकी है। क्या टी०एन० शेषन राष्ट्रपति पद के सुयोग्य उम्मीदवार नहीं थे? क्या नारायणन को समर्थन देने के बाद भी भाजपा की दलित विरोधी छवि में सुधार आया है? उ०प्र० में दलित पार्टी से गठबंधन है पर फिर भी दलित समर्थक छवि न बन सकी है। लाखों रुपये के अपव्यय वाले साहू मेले को लेकर सवालों पर जब अटल जैसा बेबाक निष्पक्ष नेता चुप्पी लगा जाये तो स्थिति की भयावहता की कल्पना की जा सकती है। आखिर समर्थन देने का तात्पर्य मात्र सत्ता का लालच नहीं होना चाहिए। करोड़ों रुपये से बनते अम्बेडकर पार्क और उद्यान क्या वाकई दलित उत्थान के प्रतीक हैं? ऐसी पार्टी को लगातार अपना स्वाभिमान गिराकर सत्ता की खातिर समर्थन देना भाजपा की अपनी छवि को धूल में ही मिलाना है। फ़िलहाल न तो सुरजीत सिंह बरनाला विजयी हो सके और न ही भाजपा की दलित विरोधी छवि ही धुल सकी। भविष्य में कार्य ऐसे किये जाएँ जो कि उनकी छवि की गरिमा को गिराएँ नहीं वरन और ऊपर ले जाएँ। अन्यथा सत्ता की खातिर दौड़ रही समस्त पार्टियों और भाजपा में कोई अंतर नहीं रह जायेगा।

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23 अगस्त 1997 - अमर उजाला समाचार पत्र

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