Monday, June 4, 2018

आज़ादी के पचास साल बाद भी हम 'गुलाम' हैं

यदि आज यह सवाल किया जाये तो संभव है कि वह सवाल करने वाले को मूर्ख ही समझे. यह एक कटु सत्य है कि आज से पचास वर्ष पूर्व स्वतंत्र होने के बाद भी हम स्वतंत्र नहीं हैं. यदि ऐसा हो तो सोचने की बात है कि हम परतंत्र किस दृष्टि से हैं. यदि हम अपने जमीर की आवाज़ को सुनकर अपने गिरेबान में झांकें तो पाएंगे कि हमारे तन तो स्वतंत्र हैं पर मन गुलाम हैं. हम मानसिक गुलामी की ज़िन्दगी जी रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद भी हमने मानसिक गुलामी से आज़ादी नहीं पाई थी और आज भी हम इससे मुक्त नहीं हैं. सवाल यह उठता है कि किन मुद्दों, किन क्षेत्रों में हमने मानसिक गुलामी का परिचय दिया है? यहाँ यह बताना कदापि आवश्यक नहीं कि हम हर क्षेत्र में, हर कदम पर अपनी मानसिक गुलामी का परिचय देते आये हैं. चाहे वह हमारी तरक्की का क्षेत्र हो, खेल का मैदान हो, देश के कर्णधारों की बात हो या उनको पैदा करने वाली माँ की बात हो, यहाँ तक कि हमने अपने परिवार की इज्जत एवं अपने देश की इज्जत तक में गुलाम मानसिकता का परिचय दिया है. पृथ्वी की सफलता के बाद भी उसकी तैनाती न कर पाना क्या है? लगातार पाक के शैतानी मंसूबों के बाद भी उसको माकूल जवाब न दे पाना क्या है? अपने देश की भूमि के स्वर्ग कश्मीर को अपना न कह पाने का क्या कारण है? खुले व्यापार की संधि समझौते के बाद भी अमेरिका की सुपर 301 की धमकी को सहना हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक है. फिर भी हम कैसे कहें कि हम स्वतंत्र हैं और आज स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती मना रहे हैं. 

दुनिया को हम दिखा रहे हैं कि आज़ादी की स्वर्ण जयंती कितने आधुनिकता से मना रहे हैं पर मन में वही प्रवृत्तियाँ, कलुषित विचार बनते, घुमड़ते रहते हैं. आधुनिकता का दंभ भरने के बाद भी हम दहेज़ के दानव को ख़त्म नहीं कर पाए हैं. आज भी लड़की को लड़के से निकृष्ट माना जा रहा है. एक जान को आँख खोलने से पहले ही मौत की नींद सुला दिया जाता है और ममतामयी कोख तरसती, रोती रह जाती है. इस पुरुष प्रधान समाज में नारी को अर्धांगनी से दासी बनाकर हम अपने उच्च मानसिक स्तर का या निम्न मानसिक स्तर  का सबूत देते हैं, कहने की जरूरत नहीं. महिला आरक्षण बिल एक बार संसद में गूंजा और फाइलों में बंद हो गया. बाल विकास की योजनायें कागजों में बनकर वहीं समाप्त हो गईं. एक जाति विशेष के गाँवों को अम्बेडकर गाँव बनाकर उन्नति का स्वांग कर सोचते हैं कि हम स्वतंत्र हैं. अपने आपको जागृत कहलाने की खातिर एक उच्च व्यक्ति को बाजार, खेतों, मेलों में मूर्ति बनाकर खड़ा कर देना किस स्वतंत्रता को दर्शाता है? आज़ादी की स्वर्ण जयंती पर अगर हम एक भी कोख से एक भी लड़की को बचा सकें, एक भी बच्चे के हाथ से भीख का कटोरा खींचकर पेन्सिल पकड़ा सकें, भूखे, नंगों को रोटी, कपड़ा दिला सकें तो यकीनी तौर पर हम आज़ादी का अर्थ समझ सकेंगे.

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27 अगस्त 1997 - अमर उजाला समाचार पत्र

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