Wednesday, June 6, 2018

प्रदेश में अस्थिरता के लिए मतदाता भी जिम्मेवार

पिछले दिनों उ०प्र० की राजनीति में अच्छाई व बुराई दोनों रूपों को देखने का मौका मिला. बुराई के रूप में यदि विधानसभा में जूते, माइक बगैरह चले तो अच्छाई के तहत राज्यपाल ने कल्याण सिंह सरकार को बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया. बुराई का एक क्षण देश की मोर्चा सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने की कोशिश थी तो अच्छा ये हुआ कि राष्ट्रपति ने राज्यपाल के फैसले को पुनर्विचार के लिए भेज दिया. बहरहाल महामहिम के एक ठोस कदम से उ०प्र० में लोकतंत्र की हत्या होने से बच गई. लोगों ने खुले रूप में इस कृत्य के लिए राज्यपाल की भर्त्सना की. राज्यपाल की वापसी की बात भी उठाई गई पर ऐसा मौका आता ही क्यों है? क्यों हमें इस तरह के हिंसक कदमों को उठाना पड़ता है? क्यों राज्यपाल अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके तानाशाही प्रवृत्ति अख्तियार कर लेता है? यह सही है कि नियुक्ति से लेकर इस घटनाक्रम तक राज्यपाल की भूमिका विवादित ही रही है. पर क्या समूचे विवाद के पीछे आरोप-प्रत्यारोप का केंद्र-बिंदु राज्यपाल ही होंगे? क्या हम मतदाता कभी भी अपने आपको इस बात के लिए दोषी ठहराएंगे कि क्यों हमने ऐसे लोगों का चुनाव किया जो एक स्थिर सरकार नहीं दे सकते हैं? क्यों हमारी मुहर की छाप हमारी संकीर्ण जातिवादी मानसिकता में रचकर बैलट पर लग जाती है?

सभी को याद होगा कि जब उ०प्र० विधानसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी तो भी राज्यपाल के द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित न करने के कारण चुनी हुई विधायिका भी महीनों तक विधानसभा को सुशोभित न कर सकी थी. क्यों ऐसा हुआ और कौन था इसका जिम्मेवार? क्यों किसी एक पार्टी को हमने पूर्ण बहुमत नहीं दिया? क्या हमारी समझ में यह आ सका है कि प्रदेश के विकास की प्रक्रिया अभी भी वहीं स्थिर है जहाँ छह वर्ष पहले थे. इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमी या फिर हमारे यही विधायक चुनावों की चाह रखते हैं पर फिर भी अगर आज चुनाव हो भी जाता है तो यह अवश्यम्भावी होता है कि ठीक यही स्थिति नजर आती जो कि इस विधानसभा में थी. हमारा विकास हो सके या नहीं पर हम जातिगत राजनीति में लगे रहेंगे. कौन दलित हितैषी, कौन अम्बेडकर पूजक, कौन धर्मनिरपेक्ष, कौन सांप्रदायिक यही राग अलापते रहेंगे. यह इत्मिनान से सोचने की बात है कि क्या मूर्तियों, बागों, पार्कों द्वारा देश का विकास हो सका? महामहिम की कृपा से हम एक बार फिर गलती करने से बच गए वर्ना हम फिर जातिगत रंग में रंगी मुहर लगाते और दोष किसी सरकार, किसी राज्यपाल को देते.
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04 नवम्बर 1997 अमर उजाला समाचार पत्र

1 comment:

  1. लोक तो हैं ही नहीं बस तंत्र ही तंत्र है, जहाँ सब जायज है
    अच्छे और सच्चे उम्मीदवार दुर्लभ है आज, जो कुछ अच्छे मिल भी गए तो उनकी कहाँ चलती हैं

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